ग़ज़ल इंतेहा ए इश्क
ग़ज़ल इंतेहा ए इश्क
रात शेरों की ऐसे ग़ज़ल हो गई
सूखे खेतों में जैसे फसल हो गई
तेरे ख्वाबों को बुनती रही रातभर
तेरी यादों से आंखें सजल हो गईं
क्या सुनाएं तुम्हें दस्ताने वफ़ा
सिर्फ ख्वाबों में थी जो असल हो गई
उसने बाहों को थामा तो ऐसा लगा
सूखी पत्ती से खिलकर कमल हो गई
ज़िन्दगी कुछ नहीं
एक धोखा सी थी
पाया तुमको
खुदा का फ़ज़ल हो गई
कैसे शिकवे गिले
उस खुदा से करूं
बेवजह ज़िन्दगी थी
सफल हो गई !