दो साये (सदृश्य रचना)
दो साये (सदृश्य रचना)
सुनसान दोपहरी को मैं निकला शहर के चौक पर ।
दो अजनबी सायों ने तब देखा ठिठक कर,चौंक कर ।
आँख में थोड़ी शरम थोड़ा सा डर दिखने लगा ।
एक साया दूसरे की आड़ में छिपने लगा ।
मैंने बेतरतीब लहज़े मे कहा तुम कौन हो ।
इतने भीषण गर्म मौसम में खड़े हो मौन हो ।
एक साये ने कटोरा मेरे आगे कर दिया ।
मानों जैसे राष्ट्र के मुख पर तमाचा जड़ दिया ।
एक साया 10 बरस का एक साया 6 बरस ।
कोई भी इंसान इन पर कैसे ना खाता तरस ।
वो वेदना के शब्द जिनमें अनकही सी आह थी ।
जेठ के दिन के रवि की सारी किरनें स्याह थीं ।
सिर्फ रोटी की ज़रूरत ने उन्हें ये बल दिया ।
एक साया दूसरे रस्ते पे आगे चल दिया ।
पगतली जलती हुई नंगा बदन अंजान का ।
प्रश्नसूचक सा था वो इस देश के अभिमान का ।
पीछे बहना एक झोला सा लिये चलने लगी ।
इन विवशता के क्षणों में हाथ वो मलने लगी ।
चेहरे पे मासूमियत थी आँख में थोड़ी शरम ।
काश कोई जान ले इन आत्माओं का मरम ।
लड़खड़ा कर एक साया जब ज़मीं पर गिर पड़ा ।
देखता रह गया मैं एक छाँव के नीचे खड़ा ।
तब बहन ने फिर सड़क पर भाई को पुचकारकर ।
दे सहारा जब उठाया राह में पग काँपकर ।
एक ट्रेक्टर मौत सा फिर आ गया था दौड़कर ।
रख दिये हैवान ने दोनों खिलौने तोड़कर ।
देखने वाला समूचा दृश्य सारा मैं ही था ।
एक लज्जा के तले जो दब रहा था मैं ही था ।
है अगर ये हाल तो जल जाऐंगीं गलियाँ सभी ।
औ वतन के इस चमन की कोंपलें,कलियाँ सभी ।
गिरिराज से उस हिंद तक हर एक बचपन गाऐगा ।
ये “आदमी” जिस रोज़ करुणाभाव उर में लाऐगा ।