कैफियत
कैफियत
फिर लिखने को बैठे हैं,
इक नई कैफियत,
यह सोच लिया है,
कि वे जनाब मान जायेंगे।
रस्मों-रिवाज, इल्म का,
दे करके वास्ता,
यह सोच लिया है कि वे,
जमाने का चलन जान जायेंगे।
जो रात में था चाँद था,
यह सुबह का सूरज है,
समझाते रहे हम,
और सोचते रहे कि,
वे सच जान जायेंगे।
जमाने में लकीरों की है,
पुरजोर अहमियत,
वे खींचते रहे हम सोचते रहे,
कि वे हमारे पास आयेंगे।
शीशे में जो दिखता है,
वो बाहर का अक्स है,
भीतर में किसके क्या है,
जब जानेंगे बहुत कुछ छोड़ आयेंगे।
फिर लिखने बैठे हैं,
इक नई कैफियत,
यह सोच लिया है कि वे,
जमाने का चलन जान जायेंगे।