खुद को पहचान तू
खुद को पहचान तू
क्यों तू
डरी डरी सी है?
क्यों तू
सहमी सहमी सी है?
उठ, हो खड़ी
खुद को पहचान तू।
क्यों लड़खड़ा रहे हैं
कदम तेरे?
क्यों पड़ रही जरूरत तुझको
सहारे की?
न समझ कमज़र्फ़
खुद को,
देवी का रूप तू
तुझसे ही आबाद संसार ये।
आफ़ताब सा तेज़ तुझमें
रोशन तुझसे कुटुंब सारा,
महताब सा नूर तुझमें
चमके तुझसे रंग-ए-हयात सारे।
क्यों फिर
हताश है तू?
उठ, हो खड़ी
खुद को पहचान तू।
है नहीं दम इतना
किसी में यहाँ कि
तुझसे टकरा सके,
बांध की तरह बांध तुझको
निज़ाम को तेरे रोक सके।
बेधड़क, एक बारी
आवाज़ तो अपनी उठा तू।
तेरी आवाज़ ही है
शस्त्र तेरा,
तेरी आवाज़ ही है
अस्त्र तेरा।
हो जायेगा महल-ए-दंभ मुहंदिम
नामर्दों के नापाक मंसूबों का,
बेधड़क, एक बारी
अस्त्र-शस्त्र तो अपने उठा तू।
न कर परवाह तू
ज़माने की,
न कर फिक्र तू
अवाम अल नास की,
न सोच तू
गुज़र गया जो,
न मान तू
कमज़ोर खुद को।
यकीं रख, बस यकीं रख तू
खुद पर,
के आसमां भी सर झुकायेगा
कदमों में तेरे,
फ़िज़ाएं भी गुनगुनाएंगी
राग में तेरे।
उठ, हो खड़ी
खुद को पहचान तू।