मौन में...
मौन में...
मौन हूँ मैं
सुन रही हूँ
समय की बहती नदी में
धरती के घूमने का स्वर।
सदियों के बीतने की ध्वनि
जीवन की उतपत्ति का
पहला संकेत
वेदों की ऋचाओं की रचना
सूक्तियाँ, उपनिषद में रखा जाना।
समस्त ज्ञान को सहेजकर
राम जन्म के बधाई गीत
सीता का चुपचाप समा जाना
धरती की गोद में।
कृष्ण का गीता ज्ञान देना अर्जुन को
महाभारत युद्ध की वो
भीषण चित्कार
घूमते रहना तमाम पीड़ा सहकर भी
धरती का यथावत।
बहुत कुछ सुन चुकी हूँ
फिर भी न जाने कितना कुछ
रह गया है सुनने का
अंतरिक्ष के इस निर्वात में
धरती मौन रहकर ही
लीन है सतत नए सृजन में।
और मैं अपने मौन में
प्रयत्न कर रही हूँ
उसके सृजन की साक्षी होने का...।