सफर
सफर
ये दिल निकल पडा,
किसी अंजानीसी राहों पर
डरा सा सेहमा सा,
किसी पनाह की तलाश पर।
मंजिल नहीं थी कोई,
ना थी कोई वजाह
बस चलना था यूं ही,
था ये एक तोहफा या फिर एक सजा।
चलते चलते इन राहों पर,
एक अजीब सा मोड आया
लगा की मंजिल मिल गयी,
ये दिल सफर वहीं पर छोड आया।
मंजिल जो थी मिली,
ये दिल संभल गया
गुजरते वक्त के साथ,
सारे दर्द भूल गया।
फिर अचानक क्या हो गया,
ये दिल समझ न पाया
मंजिल लगी थी जो,
वो अगले सफर का कारण बन गया।
फिर ये दिल निकल पडा,
किसी अंजानी सी राहों पर
डरा सा सहमा सा,
फिर किसी पनाह की तलाश पर...