दौड़
दौड़
आरजू आसमान हुई जाती है
साँसें बेजान हुई जाती है।
सीढ़ियाँ हैं कि ख़त्म ही नहीं होती
तरक्की भी अब भगवान हुई जाती है।
उंगलियाँ छोड़ कर भागता बचपन,
फिसल-पट्टी सा फिसलता बचपन।
पिता के कंधे की सैर के वय में
भारी बस्तों में दब गया बचपन।
दायरों को दर-किनार कर
भीड़ में खो गया क्यूँ मन।
घर तो अब सांय-सांय करता है
किन बाजारों में खो गया यह तन।
फिर मिलूँ तो पहचान भी लेना
मुझको ऐ दोस्त,
मैं तुम्हारा बचपन हूँ, जवानी हूँ
बस बुढ़ापे में ढल गया यह तन।