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Vandana Singh

Drama

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Vandana Singh

Drama

जीवन

जीवन

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कमरे की खिड़की पर बैठी मैं

अपने दोनो हाथ बांधे

जैसे आदत हो

और डर हाथ खोलने का

चाहे जो भी हो वजह

नहीं जानती

यही अपराध है मेरा


खैर, खिड़की पर बैठी

अनायास नज़र दौड़ती हूँ बाहर

ये रास्ते कितने मुलायम

और खूबसूरत है !


यक़ीनन ये वो रास्ते नहीं

जहाँ मुझे धकेल दिया गया था

मजबूरन चलने के लिए

काँटे, अंगारों भरे


और लड़कपन में हम भी

दौड़ जाया करते थे,

परवाह नहीं

कि उन्ही अंगारों में

जल गया सारा बचपन

और दे गया धधक आजीवन !


खैर, पंछियों को भी

इजाज़त ना थी

मुंडेर पर प्रेम गीत

गाने की

और हम कैदी ना खोल पाए कभी

अपने प्रेम की खिड़की

रोते रहे, सिसकते रहे

अपने आँसू आप ही पीते रहे !


मोटी चाँदी की दीवारे

और सोने के मढ़े द्वार

एक नन्ही आशा

भला कैसे करे पार ?


भय द्वार का नहीं,

द्वारपाल का रहा

जो हिमालय - सा द्वार पर टिका रहा


एक साँस लेने को

हवा आने से डरती थी

और अन्दर पड़ी साँस

अन्दर ही सड़ती थी

खैर, वो भी बीता

जो पहाड़ सा था...


युग बदला,

और बदल गयी तकदीर

जो हाथों में था

वो भी मिट गयी लकीर


सोचती हूँ,

कहाँ गए वो आखिर द्वारपाल ?

छीन के सारे सपने,

जीना किया मुहाल !


आज कमी महसूस होती है उनकी

बेटी शायद महफूज़ थी उनकी

अब तो रोज़ मृत्यु आती है

बिन द्वार पर दस्तक दिए

करवाती है कई सत्कार !


ग़र होते वो द्वारपाल शायद

तो ना होता रोज़ मेरा बलात्कार

तो खिड़की पर बैठी मैं

नहीं जानती क्या अच्छा था ?


घुटता हुआ बचपन

या फिर

दिन गिनते हुई जवानी...।


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