सृजन के अधिकारी
सृजन के अधिकारी
जग साक्षी है तुम ही तो सच्चे कर्तव्य निभाये हो।
हे सृजन के महारथी! तुम क्यों इतना घबराए हो।।
नगर बनाये सड़क बनाये शहर बनाये भी तुमने।
भूमंडल की सुंदरता में प्राण गंवाए भी तुमने।।
कौन विवशता है जिसको तुम अन्तरतर में छिपाए हो।।
धरा से लेकर उच्च गगन तक गाते यशगाथा तेरी।
छिपी है फौलादी सीने में अकह कहानी सब तेरी।।
हे भुजबल के विश्वासी ! तुम ही परचम लहराए हो।।
श्रमदान और कर्मदान की तुम ही जीवित मूरत हो।
प्रगति पंथ के दर्पण में तुम घोर विवशता सूरत हो।।
शोषण के ठेकेदारों से तुम बहु विधि धोखे खाये हो।।
हाथ नहीं फैलाये तुमने कभी किसी के भी आगे।
नवसृजन में तन मन देकर डटे रहे सबसे आगे।।
अपनी मेहनत के बल पर सबसे लोहा मनवाए हो।।
रोजी रोटी के साधन सब छिने जा रहे हैं तुमसे।
चिंता और घबराहट के घन घेर रहे हैं चहुँ दिश से।।
आँसू सूख गए आंखों से तुम दिखते कुछ घबराए हो।।