अर्थहीन रिश्ता
अर्थहीन रिश्ता
रात के तीसरे पहर में,
उठ कर बैठ जता हूँ,
और समने बैठा लेता हूँ,
तुम्हारा साया,
बातें करते हुए तुमसे,
कहता हूँ,
लो खोल कर रख दिया दिल अपना,
पर सच में ऐसा कभी हो नहीं पाया,
एक अनजाने डर और संकोच से,
इन तन्हाइयों में भी,
सच बोलने की हिम्मत ना कर पाया,
और हर बार ही मेरा मन,
असीम पीढ़ा और यंत्रणा से भर आया,
तुम्हारे ही व्यक्तित्व को आड़ा-तिरछा कर,
कई तरह के तस्वीरें बनाता हूँ,
फिर उन तस्वीरों को सजा-संवार कर,
उससे प्रेम करना चाहता हूँ,
मगर उंगलियाँ कांपने लगती है,
और तस्वीर बिगड़ जाती है,
रोज़ कोशिश करता हूँ,
मगर तस्वीर कभी पूरी न कर पाया,
अब ऐसे में मन खिन्न हो जाता है,
क्रोध, दुख और अक्रोश से हर बार गला भर आया,
छाती के पास कुछ जलने सा लगता है,
मगर उस धुएँ को अंदर ही पीने के प्रयास में,
आँखों में पानी भर आता है,
जिसका कोई मोल नहीं,
बिल्कुल अर्थहीन!