नई दुल्हन
नई दुल्हन
कभी तो समझेंगें वो मुझे, बस इसी सब्र में ही,
क्या बची ज़िन्दगी कटेगी मेरी रसोई-घर में ही।
नऐ घर में कुछ नऐ ख़्वाब लेकर आई थी मैं,
क्या अधूरे रह जाऐंगे उनकी अगर-मगर में ही।
क्या बची ज़िन्दगी कटेगी मेरी रसोई-घर में ही।
घर के काम खत्म करते दिन से रात हो जाती,
क्या अब सुकून मिलेगा मुझे जाकर कब्र में ही।
क्या बची ज़िन्दगी कटेगी मेरी रसोई-घर में ही।
वो मुझसे नहीं सिर्फ़ मेरे जिस्म से प्यार करते,
क्या वो जीवन साथी हैं मेरे केवल बिस्तर में ही।
क्या बची ज़िन्दगी कटेगी मेरी रसोई-घर में ही।
मैं दहेज़ में ये नहीं लाई मैं दहेज़ में वो नहीं लाई,
क्या घूमती रहूँगी उमरभर तानों के नगर में ही।
क्या बची ज़िन्दगी कटेगी मेरी रसोई-घर में ही।
टूट जाऐंगे मेरे माता-पिता मेरी ये हालत जानकार,
ख़ुदा करे इस घर की बात रहे बस इस घर में ही|
क्या बची ज़िन्दगी कटेगी मेरी रसोई-घर में ही।