अतुल्य प्रेम
अतुल्य प्रेम
क्या तुम वही प्यार हो?
जिसका कर रही हूँ तलाश वर्षों से
मन में एक सुंदर सी छवि है
जो बहुत पहले से आकृष्ट है
जिसकी रचना तो भगवान ने की है
ऐसा मेरा अनुमान है
जो पवित्र है और निर्मल भी
सूर्य की तरह ओजस्य
एक अलग सी चमक है जिसमें
जो चंद्रमा से भी परे है
जो कला का है संगम
उसका कौशल कर देता है प्रभावित
हर समय एक सोच मात्र से ही
माँ के प्यार से भी कोमल
और पिता के आदर्श से जन्म,
उन खेतों की हरियाली जैसी खुशी
भर देता है हृदय में जैसे किसान और
बादल देख कर नाचता हुआ मोर,
हवा के संग उड़ते हुए पतंग की डोर
मानो मेरी उंगलियों में फँस चुके हैं
क्यूँ उस रचना से हूँ मैं आकर्षित?
जो न ही मेरे सामने है, न ही पीछे
न जाने क्या है तुम्हारा अस्तित्व?
जो मेरे मन के तार को छेड़ कर
अतुल्य स्वर के अलंकार करता है उत्पन्न
शायद इसका नहीं है कोई उत्तर
पर तुम वही हो, हाँ वही हो
जो समय के साथ है, उस किरण की तरह
मेरे समीप है मुझे उत्साहित कर रहा है
आपने मार्ग पर सदैव चलने के लिए
और हाँ, यह प्रेम है अतुल्य