कश्मकश
कश्मकश
कहीं ऐसा तो नहीं…
आँधियों का ना होकर
कुसूर बस हमारा ही हो,
जो यूँ ग़र्दे-राह की तरह
हल्के-बेबस से हो कर
उड़ा करते हैं ऐसे अक्सर
जज़्बात की हर रौ में…?!
कहीं ऐसा तो नहीं…
आँधियों का ना होकर
कुसूर बस हमारा ही हो,
जो यूँ ग़र्दे-राह की तरह
हल्के-बेबस से हो कर
उड़ा करते हैं ऐसे अक्सर
जज़्बात की हर रौ में…?!