फिर से
फिर से
फिर से एक किस्सा-सा ख्यालों में है
फिर शब्दों की अपनी कुछ लाचारी है
फिर मचले है मुस्काने को होठ मेरे
फिर आँखों का पानी इन सबपे भारी है
फिर से यादों ने अपनी गठरी खोली है
फिर से सबकुछ बिसराने की तैयारी है
फिर से सबकुछ पा लेने को जी करता है
फिर से सबकुछ खोने की मेरी बारी है
फिर से रातों का अटूट घेरा छाया है
सुबह खिले ये सूरज की जिम्मेदारी है
फिर सागरमंथन में अमृतघट निकला है
फिर से अपनी नीलकंठ की तैयारी है