कारगिल
कारगिल
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बहुत चाहा कारगिल पर
चंद पंक्तियाँ लिखूं मैं भी
पर प्रश्नों की भीड़ में
संज्ञाहीन मन निर्विकार अविचलित ही रहा
कब हटेगा हृदय से
बर्फ की शिला सा यह बोझ
क्यों नहीं जलती आग सीने में
जो धधकनी चाहिए
क्यों कोई प्रसंग, कोई घटना
दिल को दहलाती नहीं
हाय, क्यों निष्प्राण है मन
कोमल भाव न इसमें जगते है
पर उस दिन जब
एक सात साल की बच्ची ने
कहा भावभीने शब्दों में
न मनाऊँगी अपना जन्मदिन
कारगिल में हो रहे कई सैनिक न्योछावर
अनायास ही नम हो गई आँखें
दीर्घ निश्वास के साथ
चैन की साँस ली मैने
संवेदना मरी नहीं
आत्मा अभी भी जिन्दा है
और निश्चय ही जन्म लेगी
मेरी एक कविता कारगिल पर।