मैं, कलम और ज़िंदगी
मैं, कलम और ज़िंदगी
मुझे लिखती है मेरी कलम
कभी शाम, कभी दोपहर,
तो कभी हर दम।
एक मेला सा लग जाता है
ज़हन में बहकते ख्यालों का
और मैं ढूंढता फिरता हूँ
उन में से एक कोई अपना।
ये बहुत कम होता है
कि ढूंढने पर यूं मिल जाना
ख्याल हैं महज़ ये
नहीं कोई अफसाना।
मूझे लिखती है मेरी कलम
है रोज़ का कुछ ऐसा याराना।
मुझे लिखती है मेरी कलम
कभी शाम, कभी दोपहर,
तो कभी हर दम।
वक्त मिला तो लो आज फिर लिख दिया,
ये मेरा और कलम का याराना जो ठहरा,
दो लफ्ज़ मैं सोचता हूँ, चार लफ्ज़ वो बुनती है,
शायद यही हताश पन्नों में कैद ज़िंदगी है,
हाँ, शायद यही ज़िंदगी है,
शायद यही ज़िंदगी है।