हमारा मिलन
हमारा मिलन
हमारा मिलन
उस क्षितिज के सामान
जहाँ आकर दो विषम, सम हो जाते हैं
अपना अपना अस्तित्व भूल कर
एक हो जाते हैं, वो जमीं और आसमाँ।
नजरें जिस अंतिम मिलन को देखती हैं
वो उसी धरा-गगन का मिलन है
कितना सुंदर, कितना अदभुत।
कोमल घास पर, गर्दन टिका
अपनी आँखों से उस शून्य का सफ़र
जो रंग मैं हल्का नीला
कुछ सफ़ेद बादलों से छिपा।
ये अनुमान लगाना भी इंसान के परे है
कि कितनी दूरी है. इन दो जहानों में
पर वो क्षितिज, कहता है गर्व से
कि वो आसमान
जिसकी दूरी तुम्हारी आँखें नहीं तय कर सकती।
लालायित हो, खुद झुक रहा है
इस धरा से मिलने,
हमारा मिलन, उस क्षितिज के सामान ही तो है।
जहाँ जमीं-आसमान एक होते दिखते हैं
सिर्फ दिखते हैं, यही विडम्बना है
आखिर उस क्षितिज तक पहुंचा कौन
ज़िन्दगी भर चलते रहे, क्षितिज तक जाने को।
पर उतना ही दूर रहा वो क्षितिज
हमारा मिलन, वो क्षितिज ही तो है।