रोज़ चुनता हूँ
रोज़ चुनता हूँ
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रोज़ चुनता हूँ
अपने मन की बगिया से
जूही, चम्पा, चमेली,मोगरे,
गुलाब और रजनीगंधा जैसे
लफ़्ज़ों के फूल
और, सजाता हूँ लफ़्ज़ों को
एक गुलदस्ता बनाता हूँ
नज़्मों का....
रख आता हूँ चुपके से
तुम्हारी दहलीज़ पर
रातों को
जब तुम सोए होते हो
सपनों में खोए होते हो
और, करता हूँ इंतज़ार
सुबह का
कि जब तुम खोलोगे
दरवाज़ा अपने दिल का
तो, देखोगे,
मेरे लफ़्ज़ों के फूल
मुस्कराते हुए
करेंगे तुम्हारा इस्तक़बाल
तुम्हारा स्वागत....
तुम उठाओगे इन्हें
सूंघोगे लफ़्ज़ों की खुश्बू
सजाओगे
मन के किसी कोने में....
देखूंगा मैं
तुम्हें
अपने मन की आँखों से
ख़ुश होते हुए...
कैसा है ये पागलपन?
क्या कहोगे इसे.?
ये इश्क़ है
या इबादत !!