प्रकृति का रुदन
प्रकृति का रुदन
अब मेरी उपस्थिति में भी पंख नहीं फैलाते I
आँखों में मृत्यु का भय नहीं वरन सवाल रखते है।
कलरव में रुँदन का स्वर लिए फिरते हैं।
बार-बार आशियाने को निहारते हैं।
फिर व्यथित निगाहें मुझ पर टिकाते हैं।
और मुझे ग्लानि का अनुभव कराते हैं।
मानो चाहते हैं कहना ,
जीवन कितना सहज है न
तुम इंसानों के लिए !
पर क्यूँ नहीं सबके लिए।
क्यूँ हमें अपने जीवन से समझौता करवाते हैं।
और खुद का आशियाना सँवारते हैं।
हमारा आशियाना यूँ उजाड़कर
हमारे जीवन पर पूर्णविराम लगाते हैं।
क्यूँ नहीं इस निर्ममता को त्यागते हैं ।
क्या अपने बच्चों से भी प्यार नहीं करते हैं।
छज्जे में रखे दाने को देखते है ।
फिर मानो मुझे, कहते हैं,
हम दाना चुगने नहीं आए हैं।
ये सब हमारे आशियाने हमें देते हैं।
जिसे आप सब छीन बैठें है।
हमें हमारा सुकून लौटा दो ,
हमारा धरोंदा फिर से बना दो ।
बदले में बहुत सी प्राण वायु देंगें।
आपके बच्चों का मुस्तकबिल भी हम सँवार देंगें।
हमें दानापानी देते हैं न,
यानि सहानुभूति रखते हैंI
फिर सतही क्यूँ रहते हैं
क्यूँ नहीं हमें अपना आशियाना लौटा देते।
क्यूँ नहीं स्वयं का जीवन सँवार लेते।।