इतना विशाल ह्रदय तुमने कहाँ से पाया मीरा?
इतना विशाल ह्रदय तुमने कहाँ से पाया मीरा?
इतना विशाल ह्रदय तुमने कहाँ से पाया मीरा?
उस नाम पर स्वयं को न्यौछावर कर बैठी,
जिसका अस्तित्व ही विवादित था !
जो राणाजी तुम्हें सर्व सम्मति से ब्याह,
डोली में बैठा कर घर ले आऐ,
उनकी न तुम संगिनी बनी, न पटरानी।
अपने ही सम्मान को सोलह श्रृंगार के साथ नकार दिया।
आखिर क्या न मिलता जो प्रणय निभाया होता?
बामन भगवान को तो तीन डग भरने पड़े थे,
तुम्हेंं केवल स्वीकारना भर था,
पर तुम झोली समेट बैठी।
मैंने माना कि तुम समर्पित थी,
ये भी माना कि भावना खरी हो तो पूज्य की छवि बदलना सहज नहीं।
थी तो तुम भी स्त्री ही - तन एकबारगी बाध्य हो बाँट भी लेती,
मन कैसे बाँटती भला।
दिन रात ह्रदय रिसता होगा तुम्हारा।
जब ब्याही गई तो लगा होगा की प्रिय की धरोहर,
बिना अनुमति किसी पराऐ,
अवांछित हाथ सौंप रही हो।
तटस्थ रही तुम।
नाम भर का नाता रखा राणाजी से।
किंचित सब वैध था, क्योंकि तुम प्रेम में थी।
सब जाना, सब माना मैंने।
पर दिल दहलता है ये सोच-सोच कि वह प्रिय न कभी आया,
न उसने कभी तुम्हेंं पुकारा।
तिस पर तुम हज़ारों में से एक थी - नगण्य।
उसके पास ब्याहताऐं थी,
प्रेमिकाऐंं भी और आसक्त भी।
उसे कब कोई चाह हुई की अमरबेल सी, मणि
जड़ित कोई राजपूतानी अपना सर्वस्व त्याग,
जोगन बन जाऐ?
आखिर किस आस पर तुमने धुन पकड़ी थी?
क्या मिला तुम्हेंं?
वह प्रेम,
जो प्रणय न माँगे,
बस पढ़ने-सुनने में भला है।
मैं पढ़ते, सुनते, सोचते सिहर जाती हूँ,
तुमने कैसे जिया?
ईर्ष्या से तिल तिल जल न गई तुम?
किस बिध तुम निष्ठावान भी रह पाई,
वंचित भी, और मगन भी?
इतना विशाल ह्रदय कहाँ से पाया तुमने मीरा?