चलता रहा।
चलता रहा।
चलता रहा मुसाफिर चलता रहा
सूरज उगता रहा ढलता रहा
सुबह होती रही श्याम आती रही
मुसाफिर चलता रहा और यूँ ही चलता रहा।
रास्ते पर ठोकरों का कारवां रहा
वह आँह भी भरता रहा
पर रूका नहीं बस चलता रहा
ऐसा भी ना रहा की दर्द ना रहा हो उसे
पर दर्द से दोस्ती का फसाना यूँ ही चलता रहा।
ठहरा रहा हो वो कभी एक मंज़िल के वास्ते
पर मिले नहीं यूँ ही आसानी से उसको रास्ते
उस उलझन के लम्हो में भी वो अपनी ही धुन में यूँ ही आगे बढता रहा।
थी तन्हाई हाथ फैलाए उसके रास्ते
चुना फिर भी उसने उसको
जँहा से अकसर लौट जाया करते थे लोग।
मुसाफिर ने उस तन्हाई को साथी बनाया
जिसने लोगों को खूब सताया
वो ना डरा कभी तन्हाई के थपेडों से
हाँ लड़ा ज़रूर जीतने को अंधेरो से
पर सच ही है वो चुनौतियों से जंग करता रहा।
लड़खड़ाता रहा, थकता रहा
पर ना रोया वो ना वो घबराया
एक नई उम्मीद लेकर फिर मंज़िल की तलाश में भटकता रहा।
पर रहा यकिन उसको जीत का
उस जीत की आस में वो ऊँचाई यूँ ही चढता रहा।
वफा का उसको साथ रहा
इश्क भी उसके पास रहा
हाथ थामे ज़िंदगी का रास्तों पर यूँ ही चलता रहा।
चलता रहा मुसाफिर बस चलता रहा।