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Ratna Pandey

Abstract

5.0  

Ratna Pandey

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धरती

धरती

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रो रही है धरती, आसमां देख रहा है,

बेबसी पर धरा की, वह भी तड़प रहा है,

क्या करोगे बना कर, मंज़िलों के महल,

जब बच ही न पायेगी ज़मीं, उगाने को फसल।


क्या खाओगे और क्या खिलाओगे,

जिनके लिए बांधी हैं अटारियाँ,

क्या उन्हें भूखा ही सुलाओगे ?

नहीं होगा कोई जवाब तब हमारे पास,

संभल जाओ, समझ जाओ,

धरती को धरती ही रहने दो,

अपनी लालच का जरिया ना बनाओ।


सहनशक्ति को धरा की ना आज़माओ तुम,

दिखा दिया यदि तांडव धरा ने,

महल अटारियाँ सब धराशायी हो जायेंगे।

ढूँढ़ नहीं पाओगे अस्तित्व अपना,

अपनों को नहीं फिर बचा पाओगे।


हैं और भी ग्रह ब्रह्मांड में,

किन्तु नहीं कोई जीवन है वहां पर,

भाग्यशाली हैं हम,

जो जन्म हुआ है हमारा पृथ्वी पर।


वसुंधरा माँ है हम सबकी,

जो रहने को घर और खाने को अन्न देती है,

हमें भी औलाद का फ़र्ज़ निभाना है,

लालच का पेड़ नहीं अपितु,

हरी भरी बगिया से सुसज्जित धरा को बनाना है।


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