मंज़िल
मंज़िल
इस जीवन की रेत पर कितने निशां हमने छोड़े।
इस तृप्ति रेत पर कितने दर्द हमने झेले।
इस के सामने हम कितनी बार हम हारे है।
खुशियों के छालावे बार-बार हमने देखे है।
हर दर्द के बाद भी,
हम अपनी मंजिल के निशां ढूंढ रहे है।
आज भी हम प्यासे उस ख़ुशियों के सागर का पता ढूंढ रहे है।
अकेले ही अपनी मंजिल का मुकाम ढूंढ रहे है।
अपनी ज़िन्दगी में जीने, हम एक वज़ाह ढूंढ रहे है।
अपनी ज़िन्दगी में जीने, हम एक वज़ाह ढूंढ रहे है।