बरसात
बरसात
दर्द की बयार ने मन का दरवाज़ा खटखटाया,
तो हर ख़ुशी को मैंने स्वयं से दूर होता पाया।
जो सगे-सम्बन्धी कभी लुटाते थे अपनत्व अपार,
आज उन्हीं को अपने मुख की ओर पीठ करता पाया।
आवाज़ें डर की जो चीख़ती थीं किसी छोर से,
कुहासा जो रोकता था रौशनी को मुझ तक पहुँचने से,
निराशा का भय था या था उसका अँधेरा सच,
झूठी आशा का एक नक़ाब मैंने भी अपने हृदय को पहनाया था।
दिल के झरोखे पर सिर रखकर कभी उम्मीद से देखती,
तो किसी रोज़ अपनी ख्वाहिशों और ख़्वाबों को बुनते रात गुज़ार देती।
मंज़िल नज़रों से दूर नहीं,
परंतु मन से कोसों दूर थी।
जब इच्छाशक्ति ही शिथिल पड़ गयी,
तो प्रयासों में गति कैसे आ जाती।
कानों को भयावह स्वर चुभता तनिक अधिक रहा,
आत्मा में पीड़ा का प्रवाह निरंतर बढ़ता रहा।
अनजान राहों पर चलती रही,
मन की बंझर ज़मीन को कुरेदती रही।
बरसों पहले भी कुछ ऐसा ही मंज़र था,
जब जीवन में आया खतरनाक बवंडर था।
बिखर गयी थी अनेक टुकड़ों में मैं,
तब बारिश का जल आया था मेरे अश्रुओं से मिलने।
एक नव जीवन के नव रस का अनुभव किया था,
हृदय के सूखेपन को हरियाली ने सुशोभित किया था।
तक़लीफ़ और खौफ़ की गहरी काली घटा को,
सूरज की रौशनी से जन्मे अद्भुत रंगों की आभा ने मिटाया था।
आज भी उतनी ही टूटी हुई हूँ मैं,
जब असमंजस ही है इन आँखों के सामने।
फिर एक बार बरसात के पानी को मेरे आँसुओं से मिलने आना होगा,
फिर एक बार झूले पर बैठ मेरी आकांक्षाओं और कल्पनाओं को गीत गाना होगा,
फिर एक बार बादलों के झुरमुट से सूरज की किरणों को ताकना होगा,
आकाश पर अनेक रंगों से सुशोभित इंद्रधनुष को अपनी पहचान बनाना होगा।
फिर एक बार...
एक नए बदलाव की हवा को बहना होगा।