बहरों की बस्ती
बहरों की बस्ती
जान चुका तुम शब्दों को , अंगार नहीं लिखने दोगे !
सत्ता की मनमानी का , प्रतिकार नहीं लिखने दोगे !
जनमानस के दुर्दिन के , अम्बार नहीं लिखने दोगे !
हो फूलों की बरसात चाहते , खार नहीं लिखने दोगे !
भूख ,गरीबी पे होता , व्यापार नहीं लिखने दोगे !
इस कातर होती पीढ़ी की , हुंकार नहीं लिखने दोगे !
संविधान का जर्जर तन मैं अंधों को दिखलाता हूँ ।
बहरों की बस्ती में पीड़ा लोकतंत्र की गाता हूँ ।............................ १
भारत माँ के भावों का शृंगार, नहीं लिखने दोगे !
राधे,निर्मल का पूजा दरबार , नहीं लिखने दोगे !
मुल्क में होता नारी अत्याचार , नहीं लिखने दोगे !
महँगाई का होता मूकप्रहार , नहीं लिखने दोगे !
जब भी कलम उठाऊँगा हर बार , नहीं लिखने दोगे !
है पता मुझे गद्दारों को गद्दार , नहीं लिखने दोगे !
संविधान का जर्जर तन मैं , अंधों को दिखलाता हूँ ।
बहरों की बस्ती में पीड़ा लोकतंत्र की गाता हूँ ।............................२
बोलो मेरी कविताऐं हैं बेकार, कहो तो ना लिख्खूँ !
सच्चाई के आगे हो लाचार, कहो तो ना लिख्खूँ !
दूषित होता पूरा धर्मप्रचार, कहो तो ना लिख्खूँ !
पल-पल पीता खूँ को भ्रष्टाचार, कहो तो ना लिख्खूँ !
देश में होता काला-कारोबार, कहो तो ना लिख्खूँ !
शब्दों में संरक्षित ये यलगार, कहो तो ना लिख्खूँ !
संविधान का जर्जर तन मैं अंधों को दिखलाता हूँ ।
बहरों की बस्ती में पीड़ा लोकतंत्र की गाता हूँ ।............................३