सखी
सखी
कभी मिला तुमसे नहीं,
फिर भी तुम अजनबी नहीं..
माना दूरी है मीलों की,
फिर भी हम संग हैं... ये शब्द तुम्हारे,
हैं बहुत ही प्यारे,
इन शब्दों में मैं अक्सर खुद को साथ तुम्हारे पाता हूँ,
एक कल्पनाओं की छोटी सी सुंदर दुनिया है मेरी,
उस दुनिया में संग तुम्हारे रहता हूँ,
देख तुम्हीं को जीता हूँ, देख तुम्हें मुस्कुराता हूँ,
अक्सर उस बरगद के पेड़ पर बंधे झूले पर तुमको बैठे पाता हूँ,
उड़ती जुल्फों में तुम्हारी, खुद को उलझा पाता हूँ...
जब छम छम करती पाजेब तुम्हारी गूंजती है आंगन में मेरे,
मेरी नजरें बस तलाशने लगती हैं तुमको,
मुस्कुराते हुए तुम्हारे गुलाबी गालों में पड़ते ये गड्ढे बड़े ही प्यारे लगते हैं....
अक्सर तनहाई में तुमको ही साथ मैं पाता हूँ,
अपनी छाया में देख तुम्हें, तुमसे इश्क़ बतियाता हूँ,
आभा को तुम्हारी मैं अक्सर धूप में पाता हूँ...
देखो कभी खुद को आईने में कभी मेरी नजरों से,
तुम भी खुद से इश्क़ करने लगोगी...
सुन "सखी" मैं साथ तुम्हारा चाहता हूँ,
सिर्फ कल्पना में नहीं, हकीकत में....
बस इसी जन्म नहीं, हर जन्म में...
बोलो "सखी" दोगी न साथ मेरा...!