अनंत कैद– पंगुता
अनंत कैद– पंगुता
परकटे परिंदे की तरह,
खंडित-पंगु शरीर में,
आत्मा फड़फड़ाती है,
तब मुझे उनकी व्यथा
समझ में आती है.
पंगुता का अभिशाप,
लील लेता है पूरे जीवन को,
केवल असीम दृढ़ता ही,
इससे पार पा पाती है...
हर तरफ हैं सैंकडो प्रश्न, क्यों?, कैसे?, क्या?
सिर उठाकर इनका,
जवाब देने की हिम्मत,
बिरलों में ही आ पाती है...
मौका नहीं चूकते लोग
हीनता का एहसास कराने का,
नीचा दिखाने का,
इसका फ़ायदा उठाने का,
अटूट साहस और अदम्य जीजिविषा ही,
इसका डटकर सामना कर पाती है...
गहन ज़ख्म दिये हैं,
जिन्होंने दुखित ह्रदय को,
एक संस्कारी, धीर-गंभीर चेतना ही, उन्हें क्षमा कर पाती है...
छिन्न-भिन्न अंतस के टुकड़े,
सहेज कर आगे बढती हूँ,
भग्न हृदय से,
जीवन का गीत रचती हूँ,
पास ना आये हताशा,
दूर रहे निराशा,
एक दृढ़ इच्छाशक्ति ही,
चट्टान की तरह,
वहाँ अडिग रह पाती है,
जहॉँ आशा की नन्ही लौ टिमटिमाती है,
और आगे बढ़ने की राह दिखाती है...