तमाशा
तमाशा
तेरा शहर हमें अब शहर नहीं लगता
तमाशा अब हमें तमाशा नहीं लगता।
हाथों की लकीरों में तुझे ढूंढते रहें
एक तरफा प्यार का पौधा नहीं लगता।
शिकायत कैसे करूँ अब किसी से टूटने की
मुकद्दर में तुझे पाने का मौका नहीं लगता।
एक आरज़ू ही रही सदा तुझसे मुलाकात की,
सफ़र-ए-तमाम पर मंज़िलों का मौका नहीं लगता।
हसरतें बोझिल हो गई थी अब तमाशा बनकर
हुस्न में ख्वाबों को मौका नहीं लगता।।