दहेज के दानव
दहेज के दानव
मैं एक बूढ़ा हूँ रंजो गम का दामन हर दम सहता हूँ,
किसी के घर ना हो बेटी यही मौला से कहता हूँ।
मेरा आँगन था सूना पड़ा मुद्दत से उदासी थी,
थी सुबह हर बंजर मेरी हर शाम बासी थी।
बड़ी मिन्नतें की घर में मैंने उजाले के वास्ते,
पीर, बाबा को गया, मौला के रास्ते।
बड़ी ख्वाहिशों के बाद मेरी बगिया भी चहकी थी,
खुदा तुमने बूढ़े के दामन में औलाद बख्शी थी।
हर सुबह की किरण नई पैगाम लाती थी,
मेरी बेटी आँगन में जब खिलखिलाती थी।
खुदा मेरे मुझे इस बात का बड़ा अफ़सोस था,
मेरी डाँट से डरती थी इस बात का रोष था।
मेरी बेगम से ही वो खोलती थी ख्वाहिशों की बात,
सहमी बड़ी रहती थी मुझसे, था बुरा एहसास।
उम्र बेटी की मेरी ज्यों बढ़ती जाती थी,
ब्याह की चिंता मुझे मौला सताती थी।
साइकिल लेके बूढ़ा मैं हर गली दर घुमा,
सुनकर दहेज की बात सर मेरा घुमा।
महीने भर जला के खून अपना जो पाता हूँ,
हज़ार सात रूपये में तो घर चलाता हूँ।
चपरासी मैं लाख रूपये कहाँ से लाता ?
सोच के ये बात, मेरा दिल था घबराता।
दिन मेरे गुजर रहे थे मिन्नतें करते,
आस थी शायद किसी का भी दिल पिघले।
देख के मेरा यूँ झुकना औरों के सामने,
पूछती बेटी मेरी क्या जुर्म की थी बाप ने ?
फिर जुर्म से बाप को आजाद कर दिया,
मेरी बेटी ने आग में जल खाक कर दिया।
उसी आग को सीने मैं लेकर दर-दर जलता हूँ,
किसी के घर ना हो बेटी यही मौला से कहता हूँ।।