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Soniya Khurania

Abstract

2  

Soniya Khurania

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कुछ मर्द ऐसे भी

कुछ मर्द ऐसे भी

2 mins
279


क्यूँ तुम मुझे देख नहीं पाईं मेरे मजबूत काँधों

और मेरे मर्दाना ताकतवर जिस्म से परे

और मैं तुम्हें ढूँढता रहा

तुम्हारी माँसल देह के भीतर छिपी रूह में सदा

क्यूँ तुम नज़र अंदाज़ करती रहीं कि मेरी संवेदनाओं को

तुम्हारे रूहानी संसर्ग की ज़रूरत है

ज़रूरी तो नहीं कि मर्द हूँ तो बस संभोग चाहि

मुझे वासना से ऊपर भी कभी समझा होता

मेरे सख्त सीने पे सर रखके सोना बेशक हक है तुम्हारा

कभी उसके भीतर की नर्म तहों को

अपने एहसासों के स्पर्श से बुना होता

अरे कभी तो मेरी धड़कनों की बेबसी को भी सुना होता

काश तुमने मुझमें मेरे इस मासूम दिल को चुना होता

मुझे भी ज़रूरत है कि कभी तुम भी झाँको

मेरी गहराइयों के भीतर

जैसे मैं तुम्हारी उनींदी आँखों को भी तकता हूँ

एक नन्हे बच्चे की मानिंद

तुम भी तो कभी पूछो कि मुझे भी कुछ चुभा है क्या

क्यूँ धडकनें मेरी भी कभी जो तेज़ होती हैं

तो उसका सबब सिर्फ तुम्हारे जिस्म की

मादक गंध से परे भी कुछ हो सकता है

मैं भी उम्मीदें रखता हूँ

तुम्हारी बेरुखी से दिल मेरा भी रो सकता है

काश के तुमने मुझे मेरे मर्दाना जिस्म से परे भी देखा होता

तो तुम मुझको रिझाने को सिर्फ अपने गदराए जिस्म को ना सजातीं

अदाएँ कातिलाना..शोख बदन..अपनी देह पर ना इतरातीं

तुम भी डूबतीं जो रूह के समंदर में मेरे..

तुम्हे पता ही नहीं के मेरी गहराइयों में

खुदको कितने गहरे उतार आतीं....

पर कुसूर तुम्हारा नहीं...

हम मर्दों की आँखों में सदा भूख ही देखी तुमने...

इस वास्ते पाने को हमें अपनी देह ही परोसी तुमने....

सजा लिया तुमने खुद खुदको चीज़ों की तरह...

हाँ सच के हमने बदला तुमको कमीज़ों की तरह...

कहीं हम टूट पडे हैं तुमपे सवालों की तरह....

औ जबकि खा के बैठे तुमको निवालों की तरह....

सुनो मगर कुछ मर्द होते हैं दुशालों की तरह....

उन्हें संभाल कर रक्खो अपने मासूम से ख्यालों की तरह......


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