कुछ मर्द ऐसे भी
कुछ मर्द ऐसे भी
क्यूँ तुम मुझे देख नहीं पाईं मेरे मजबूत काँधों
और मेरे मर्दाना ताकतवर जिस्म से परे
और मैं तुम्हें ढूँढता रहा
तुम्हारी माँसल देह के भीतर छिपी रूह में सदा
क्यूँ तुम नज़र अंदाज़ करती रहीं कि मेरी संवेदनाओं को
तुम्हारे रूहानी संसर्ग की ज़रूरत है
ज़रूरी तो नहीं कि मर्द हूँ तो बस संभोग चाहि
मुझे वासना से ऊपर भी कभी समझा होता
मेरे सख्त सीने पे सर रखके सोना बेशक हक है तुम्हारा
कभी उसके भीतर की नर्म तहों को
अपने एहसासों के स्पर्श से बुना होता
अरे कभी तो मेरी धड़कनों की बेबसी को भी सुना होता
काश तुमने मुझमें मेरे इस मासूम दिल को चुना होता
मुझे भी ज़रूरत है कि कभी तुम भी झाँको
मेरी गहराइयों के भीतर
जैसे मैं तुम्हारी उनींदी आँखों को भी तकता हूँ
एक नन्हे बच्चे की मानिंद
तुम भी तो कभी पूछो कि मुझे भी कुछ चुभा है क्या
क्यूँ धडकनें मेरी भी कभी जो तेज़ होती हैं
तो उसका सबब सिर्फ तुम्हारे जिस्म की
मादक गंध से परे भी कुछ हो सकता है
मैं भी उम्मीदें रखता हूँ
तुम्हारी बेरुखी से दिल मेरा भी रो सकता है
काश के तुमने मुझे मेरे मर्दाना जिस्म से परे भी देखा होता
तो तुम मुझको रिझाने को सिर्फ अपने गदराए जिस्म को ना सजातीं
अदाएँ कातिलाना..शोख बदन..अपनी देह पर ना इतरातीं
तुम भी डूबतीं जो रूह के समंदर में मेरे..
तुम्हे पता ही नहीं के मेरी गहराइयों में
खुदको कितने गहरे उतार आतीं....
पर कुसूर तुम्हारा नहीं...
हम मर्दों की आँखों में सदा भूख ही देखी तुमने...
इस वास्ते पाने को हमें अपनी देह ही परोसी तुमने....
सजा लिया तुमने खुद खुदको चीज़ों की तरह...
हाँ सच के हमने बदला तुमको कमीज़ों की तरह...
कहीं हम टूट पडे हैं तुमपे सवालों की तरह....
औ जबकि खा के बैठे तुमको निवालों की तरह....
सुनो मगर कुछ मर्द होते हैं दुशालों की तरह....
उन्हें संभाल कर रक्खो अपने मासूम से ख्यालों की तरह......