ख़ुदा
ख़ुदा
ख़ुदा दिखाता है राह,
हर भटके रहनवर्द को,
हर दर्द की जहाँ में,
दवा बनाता है खुदा।
कभी ग़र मंज़िल न हो,
दीग़र ज़ुल्मत में,
तो एक शुआ-ए-तनवीर,
दिखता है खुदा।
जो दे दर्द,
तो ज़ौक़-ए-ज़ब्त-ए-ग़म भी दे,
अपने बन्दों को कहाँ,
भूल पाता है खुदा।
सफर का सरमाया,
हर मौज का साहिल है,
देकर मुश्किलें,
आदमी को आज़माता है खुदा।
आबिदान-ओ-कुफ़रान,
सहारा वही है,
भूल जाओ कभी तो,
याद दिलाता है खुदा।
सबको देता है,
अजदहाम-ए-रंज-ओ-शाद,
बड़े तदव्वुर से ये,
तक़दीर बनाता है खुदा।
जो न हो किसी को,
जहाँ में कोई मयस्सर,
तो फिर उसका सहारा,
बन जाता है खुदा।
ग़रचे उसकी मौजूदगी,
पर उठने लगे शुबहा,
तो क़फ़स-ए-पर्दा से,
निकल आता है खुदा।
कभी-कभी तो लेता है,
इम्तिहान बशर का,
फिर इरतेआश-ए-दुआ में,
उभर आता है खुदा।
करता है कभी फिर वो,
एजाज़ कुछ ऐसे भी,
इंसाँ के यक़ीं को,
क़ामिल बनाता है खुदा।
कभी करता है,
ज़र्ब-ए-हवादिस से बिस्मिल,
फिर इक मुशाहबत से,
मरहम लगाता है खुदा।
कोई अपनी रूह में,
झाँककर तो देखे,
मुजस्सिम वहीं,
नज़र आता है खुदा।