उजाड़
उजाड़
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अकेलापन
जब आता है
तो प्राणों की कन्दरा में
उतरती है ठण्डक
शनैः-शनैः
फैलती है
शीतल गैस की तरह
मुख होता है ज़र्द
त्वचा सूखी
आँखें निस्तेज़
बर्फ़ की
आदमक़द शिला पर
रक्खी ममी
कोई छिद्र नहीं
जहाँ से छनकर
धूप की किरणें आ सकें
चिड़ियों का चहचहाना
कोई छैनी
जो काट सके
अँधेरे का परबत
कोई तीर नहीं
जो बेध सके
मछली की आँख
कोई स्वप्न नहीं
जो उतरे
आँखों के उजाड़ नीड़ में