कुछ समझ नहीं आता
कुछ समझ नहीं आता
एक मुसाफिर ने पूछा ये गाँव है या शहर..
तो भीड़ से आवाज़ आई, ये सवाल क्यों भाई,
तो वो बोला,
कुछ समझ नहीं आता कौन आदमी है कौन औरत,
यहां छोटे घर भी है और बड़े घरों की भी है शौहरत,
यहां कोई नक़ाब है और कोई बेपरदा घूमती है औरत,
एक मुसाफिर ने पूछा ये गाँव है या शहर..
तो भीड़ से आवाज़ आई, किसी अपने से पूछ लो,
तो वो बोला,
कुछ समझ नहीं आता, कौन अपना है कौन पराया,
मिलकर मारते है एक को, ऐसा क्यों समाज बनाया,
यहां इश्क़ भी बिकता है, खुदको ले जाऊ कहाँ,
कुछ समझ नहीं आता, कौन अपना है कौन पराया,
अब वो निगाहें कहाँ ले लाऊं, जो तौल दे सबका हिसाब,
“तनहा” मैं भी तो रास्ता भटक गया हूँ
ज़िंदगी और मौत के बिच लटक गया हूँ।