तुम
तुम
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तुम हो कि
अपनी हरकतों से
मुझ में बसी स्त्री को जगा देते हो
मुझ में बसी स्त्री को जगा देते हो
और कहते हो
तुम इन सब में से एक हो फिर भी मेरे पास हो...
तुम खास हो
तुम हो कि
मुझ में सोयी श्वेत किरणों को
छूकर बदल देते हो रंगो में
और कहते हो
तुम मेरी प्रकृति हो...
तुम खास हो
तुम हो कि
फूलों की नज़ाकत लिये
मेरे मन के कोने कोने को
कुरेद देते हो
और फिर टपकते दर्द को
खुद में समाये कहते हो
तुम मेरी आस हो...
खास हो
तुम हो कि
धुँध की तरह आकर
बादलों को मुझमें रोप देते हो
फिर बरसती बारिश में
भीगते रहते हो मेरे साथ
और कहते हो कि
तुम ही मेरी कविता हो....
तुम खास हो