बलात्कार
बलात्कार
निर्भया की चिता जैसे ही जलाई गई,
एक आह सिस्कार सुनाई दी,
बलात्कार यानी चित्कार,
वह दो मिनट की हवस,
करती स्त्री की अस्मत को तार - तार,
करती चाँद जैसे उसे दाग़दार!
ताउम्र बन जाता वह कोढ़,
पल-हर-पल रिश्ता घाँव बनकर,
शरीर तो नुचता ही है,
आत्मा भी तार - तार होती है!
ऐ, हवस की शिकारियों,
तुम्हें क्या तनिक भी लाज नहीं?
माँ, बहन, बेटी को नोचने का,
तनिक भी मलाल नहीं ?
दूसरे की बहन - बेटी पर,
जब राल टपकाते हो,
अपनी बहन - बेटी का अक्स,
क्यों नहीं अपने सामने लाते हो?
जानवर और इंसा में कुछ तो फर्क कर,
इंसा ही बना रह, जानवरों के कर्म न कर!
औरत की अस्मत को यूँ सरेआम बदनाम न कर,
औरत देवी भी है, ये घिनौना काम न कर,
देवी ही रहने दे, दुर्गा - काली बनने पर मजबूर न कर,
फन पर पैर नहीं पड़ता, तब तक ही नागिन शांत रहती है,
फन को कुचलने की जुर्रत न कर,
मैं नागिन द्राैपदी या काली अगर बन जाऊँगी,
देख लो फिर छाती पर पैर रखकर चढ़ जाऊँगी,
तुम्हारे खून से अपने केशों को धुलवाऊँगी!
तुम भी जीयो और मुझे भी जीने दो,
आज़ादी का घूँट पीने दो, आज़ादी मिली है सदियों बाद,
छीन उसे, घुटने पर मजबूर न कर,
क्यूँ चाहते हो दुनिया में न आऊँ,
पैदा होते ही कोख़ में ही मारी जाऊँ!
ऐ, हवस के दीवानों, अब भी तनिक संभल जाओ,
"शकुन" ऐसा न हो चौराहें पर,
भेड़ - बकरियों जैसे बलि चढ़ जाओ!!