ईश्वर
ईश्वर
कभी तो मेरे सामने आओ
और बताओ
कहाँ रहते हो तुम?
कोई कहता है
मंदिर मे बजती
घंटियों की आवाजो में,
चिरकाल से प्रतिष्ठित
भव्य मुर्तियो में
वास है तुम्हारा।
आरती की पावन सुनहरी लौ में
दिवारों पर टंगी रंगीन चमकती
तुम्हारी स्वयं की चित्रों में
तुम रहते हो।
कोई कहता है
मस्जिद के अज़ानों में
कुरान के पाक पन्नों में भी
वास है तुम्हारा।
यह सुना है कि
गुरूद्वारों में, गिरजाघरों में
मठों में, आश्रमों में
नदियों में, पर्वतों में
पीपल में, बरगद में
और न जाने कहाँ – कहाँ
वास है तुम्हारा।
हर्षोल्लासित होकर
मैंने सब जगह तुम्हे तलाशा
विश्वास करो
थी बड़ी अभिलाषा।
न जाने क्यूँ दिखे नहीं तुम?
हताश सी बैठी थी
कहाँ ढूँढ पाऊँगी तुम्हें?
क्या मुझसे हुई है
कोई बड़ी भूल?
रूठ गए हो
दर्शन नहीं दोगे।
मन में चुभा एक शूल।
पर मैं भी नहीं मानूँगी।
भूल सुधारूँगी-ईश को पाऊँगी।
टटोलना शुरू किया
अपने आप को।
झाँका सादगी से
अपने अंतःस्थल को।
और हतप्रभ रह गई !
हे ईश्वर---
यहीं तो रहते हो!
मेरे हृदय में ही - वास है तुम्हारा।