नदी जल रही थी
नदी जल रही थी
चंचल, ऊर्जावान, आवेगशील
अपने यौवन के उफान में
मद-मस्त नदी की धारा,
क्या उसको भी एक साथी की जरुरत थी
संपूर्णता से सम्पन्न, उद्गम, लक्ष्य, प्रवाह
निरंतर पल्वित, सर्जनशील, मनोरम, चिताकर्षक
एक प्यारी का,
दो अविलय का आपस में विलय हुआ।
एक सुंदर प्यारी सी चिड़िया
नित साथ बढ़ता गया
प्रातः, संध्या, हर पल, हर क्षण
दो यौवन का मेल हुआ।
अद्भुत एकरूपता, अद्भूत समर्पण
जैसे-जैसे समय बढ़ा, ये रिश्ता भी प्रगाढ़ हुआ,
वियोग तो जैसे जहर हुआ,
जीवन पथ, सारे स्वप्न
हर मंजिल अब एक हुई।
नदी थी चिड़िया, चिड़िया नदी थी,
नदी या चिड़िया, मध्य सीमा का लोप हुआ
इतने पर भी, हाय ! विधाता का प्रहार हुआ,
चिड़िया का ह्रदय परिवर्तन, बेचारी जलयुक्त,
नदी को, जल का ही अकाल हुआ।
आवेग परिवर्तन, प्रवाह परिवर्तन
उसकी जीवन धारा, प्रिया में लीन हुई,
वो सिकोमल, वो संदर्भी, सअर्थी
अर्थहीन, जीवन हीन,
बिन सागर के, विरह सागर में विलीन हुई,
चिड़िया, क्या वास्तविकता,
क्या सच्चाई, या कल्पना,
या समय परीक्षा की घड़ी आई।
क्या चिड़िया के जीवन में भी आई थी तन्हाई
या मिला था उसको नया साथी
या थी यौवन की फिर छल युक्त
एक और तरुणाई।
नदी, अस्तित्व हीन, नव सर्जन की आशा में
स्थिर, मलिन सी, प्राण विहीन
उसकी साँसे, उसकी धड़कन
प्रिया संग ही, प्रिया में ही लीन हुई,
सर्जन छीना जिसने, उसको ही पुनर्रचना करनी थी।
वियोग में, विरह में
अब भी पुनर्मिलन की आश में
नदी प्यासी थी
नदी व्याकुल थी
नदी स्तब्ध, आवेग हीन, प्रवाह हीन।
फिर भी एक अलग ही अग्नि
झुलस रही थी
भविष्य को देख रही थी
नदी जल रही थी।।