मेरा अहम्
मेरा अहम्
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ज़ंजीर ....
वह , जो हम दोनों से जुड़ी हुई थी
जाने कब ...
कैसे ...
कहाँ ...
टूट सी गयी है ..
कितनी बार चाहा
उसे जोड़ सकूँ ...
बहुत...
बहुत पास बैठ कर
एक बार फिर
वही कुछ ...
जो पहले कभी कहा था ...
कहूँ ...
हर बार
मेरा अहम्
दीवार सा बन गया ....
मैं ...
सिर्फ चाहती रह गयी .....
और तुम
मुझसे दूर
बहुत दूर चले गए ....
खो गए ...
ज़ंजीर की हर कड़ी
टूट कर
बिखर चुकी थी ...
और मैं ...
उसका
अपनी तरफ का कोना थामे
मूक दर्शक सी
देखती रही ...