कटघरा
कटघरा
घर की छोटी सी छत पर
जब चुन्नु हाफ पैंट और बुशर्ट में
दिन ढलने के बाद
बल्ले को घुमा कर शॉट-दर-शॉट लगाता
अपनी छोटी सी पिच की बड़ी पारी खेलता हुआ.
अचानक आँगन से अम्मा आवाज़ लगाती,
'नीचे आजा, सात बाज गये हैं.'
बुझे मन, पर चुस्त कदमों से
वो सीढियाँ लाँगते नीचे भागता,
सात जो बाज गये थे...
हाफ पैंट जब बेल-बॉटम में बदला,
कलमें थोड़ी और खिलीं.
अब पिच थी कॉलेज की कैन्टीन
और पारी थी भाँति-भाँति के रंगों में उड़ती चुनरियाँ
शेर-ओ-शायरी का गुलिस्ताँ बस, बसने ही वाला होता कि
चुन्नु की घड़ी के काँटे चार बजाते
'उफ्फ! जाना होगा यार, चार बाज गये'
और जीवन के फ़लसफ़े घड़ी के घन्टों में उलझ जाते
चुस्त क़दम, भारी मान,
दोनों साथ ही चुप-चाप डग भर रहे होते.
चुन्नु अब मि. चिनमय था,
सूट-बूट में घूमता बड़ा आदमी था,
चार-चार अंगूठियों वाले हाथ हरदम फोन या कंप्यूटर पर व्यस्त
ठीक दस बजे ऑफिस पहुंचना
और आठ बजे केबिन लॉक कर के बाहर निकलना.
एक दिन की बात है
मि. सिन्हा, ऑफिस के सबसे सीनियर अकाउंटेंट
चुन्नु के पास आए, 'सर, आज मेरे पोते का बर्थडे है,
उसका नाम चिनमय रखा है ताकि वो...
अगर आप थोड़ी देर घर आते तो...'
चिनमय के माथे पर दो लकीरें उभरीं
फिर उसने पल भर रुककर कहा,
'देर हो गयी है,
मेरी तरफ से...'
गुनहगार घड़ी की सुइयों पर नज़रे गड़ाए वो चल पड़ा
भारी क़दम और भरा मन.
चुन्नु से चिनमय
पापा, दादा, बड़े पापा, सर, राहगीर,
कितने ही सफ़र तय किए
कितनी ही लहरों को छू भर के भागा
और फिर,
चिनमय की बूढ़ी आंखों को याद हो आया वो पल
जब माँ की पहली पुकार पर उसने अपने प्रिय खेल को बीच में छोड़ा था
घड़ी के काँटे चल रहे थे
आस-पास खानदान, रिश्तेदार खड़े थे
कहने को कितना कुछ था
सुनने वाले भी कितने ही थे
बात ज़ुबान से निकली ही थी कि
'टंग-टंग'
नज़र जो दीवार-घड़ी की तरफ पड़ी तो हट ना सकी.
आख़िर था ही वो वक़्त का पाबंद इंसान,
या फिर था वो समय की पाबंदी में जकड़ा एक नादान?