क्षण क्षण में युग जी कर
क्षण क्षण में युग जी कर
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क्षण क्षण में युग जी कर,
कण-कण से ऊर्जा लिऐ,
इन्द्रियों को वश में कर,
तप किया रे तूने।
ज्ञान और ताप से अर्जित अहंकार,
फिर बल, सत्ता और प्रभुत्व की आस,
छोड़ गया रे तेरा विवेक तुझे,
रावण, यह तेरा कैसा विकास?
निर्मल आत्मा तो सुप्त रही,
काम, क्रोध जगते रहे
ऊपर छाये इन जालों से,
माया के आवरण पर आवरण चढ़ते रहे।
मद में है चूर,
करता अट्टाहास क्रूर ,
क्या रची राम ने ऐसी विधि,
तेरे व्यसन न हों तुझसे दूर?