शेरिफ़ तुम्हेंं याद करते हुऐ
शेरिफ़ तुम्हेंं याद करते हुऐ
खेत में खड़ी लहलहाती फसलों की बालियाँ
ख़ून सनी तलवारों से वज़नी होतीं
अगर तराज़ू होता
दुधमुँहें बच्चे को सीने से लगाऐ
किसी औरत के हाथ में
या विषय पर ली जाती राय
दीर्घ चुम्बन में व्यस्त किसी प्रेमी युगल से
दुनिया और भी बेहतर समझ पाती
दिल के इंसानियत से रिश्ते को
जो गाज़ा में बारूदी गंध के बीच उछलती लाशों को
सिनेमाई दृश्य न समझता इज़राइल
ना खा रहा होता बैठकर पॉपकॉर्न
ह्रदय विदारक रुदन देखते
चीत्कार सुनते हुऐ
पिशाचों ने रातों के बाद क़ब्ज़ा लिऐ हैं दिनों के हिस्से....
और ज़माना गर ऐसे ही मरदूदों का है
तो मुक़म्मल हुआ भीतर के ख़ौफ़ का
एक कँपकँपाहट भरी ज़ख़्मी आवाज़ के साथ बाहर आना
यूँ कहा जाना
कि 'ज़माना ख़राब है'
इस बीच याद आते हो तुम शेरिफ़
ओ मेरे फिलिस्तीनी दोस्त!
भले तुम्हारे उपनाम 'अब्देलघनी' को
तुम्हारी तरह एपीग्लॉटिस से बोलना न सीख सका मैं
पर महसूस सकता था
जड़ों से कटने का दर्द तुम्हारी बातों से
जो पाया विरासत में तुमने
नहीं देखी तुमने कभी अपनी मादरज़मीं
सिर्फ़ सुने अपने पिता से उसके किस्से
माफ़ करना
मगर जब तुमने बताया था
अपने भाई को कैंसर हो जाने के बारे में
तब भी तुम नहीं उतार पाऐ थे अपनी आँखों में उतना पथरीलापन
जितना कि उतर आता था तुम्हारे फिलिस्तीनी ज़ख्म कुरेदने पर
अब की फिर
बारिश के पानी से कहीं ज्यादा बरसी होगी बारूद
जिस्मानी तौर पर छूट चुके
तुम्हारे पुश्तैनी घरों की छतों पर
फिर तुम्हारे कुछ दोस्त-रिश्तेदारों के लहू को किया गया होगा मजबूर
उनकी देहों से बेवफ़ाई करने को
फिर बिछड़े होंगे कई सदा के लिऐ
बेवक़्त सुपुर्द-ऐ-खाक़ हुई होंगीं कई ज़िंदगियाँ
फिर यतीम और बेवाओं की आँखों से लावे बहे होंगे
फिर उस तरफ की कुछ नई सूनी कोखों ने
इम्तिहानों से आज़िज आकर उठाये होंगे हाथ दुआ में
काश सुन सकते तुम
जो ये हिन्दुस्तानी दिल रोता है तुम सबके लिऐ
ख़ैर आँसू बहाने से क्या हल
क्या असर नाम भर के इंसानों पर
सो काश सुन सकता लहू ही कि
'देह के भीतर ही बहा करो
गोलियों, ख़ंजरों या बारूदों के
उकसावे में आ
आवारा हो जाना ठीक नहीं'