प्रकृति माँ
प्रकृति माँ
हे मानव ! मत उलझ प्रकृति से,
जिसका स्थान है जननी का !
पंछी, नदियाँ या हो समंदर,
पशु, जंगल या हों विशाल भूधर !
सब के जीवन का मोल एक सा,
सभी का है स्थान एक सा !
तरु देते हमेँ प्राण वायु,
हरियाली है श्रृंगार धरा का !
कार्बन उत्सर्जन है बड़ी समस्या,
अकूत दोहन न हो धरा का !
कभी किसी प्यासे से पूछिये,
महत्व दो बूँद जल का !
प्राकृतिक संसाधनों का
उपयोग हो सीमित,
आवश्यक है ऐसी पुकार !
हज़ारों नई पौध लगाना,
अब है समय की दरकार !
जल संरक्षण की दिशा में,
महत्वपूर्ण क़दम उठाना है !
जल की बूँदों को एकत्रित कर,
गागर मेँ सागर भरना है !
मानव, जब तू होगा सचेत,
प्रकृति माँ मुस्कुरायेगी !
समृद्धि का चादर ओढ़ धरा,
झूम झूम इतरायेगी !
हे मानव ! तेरे ही आँगन में,
ख़ुशियों की फ़सल लहलहायेगी
और आगे आने वाली पीढ़ी भी,
बस तेरे ही गुण गायेगी !