अंजान मोर
अंजान मोर
इस शोर में कहीं तो कोई शांत होगा
दिने के उजाले में कहीं तो अँधेरा होगा
शायद भटक गए है हम
पर जहाँ के हम बाशिंदे, वहां का कोई तो परिंदा होगा
मिलो चल आये पर कहाँ हमारा आशियाना होगा
अनकही बातें हमारी कोई तो सुन रहा होगा
हमे जो सुनना है वो कोई तो कह रहा होगा
ये काम मेरा नहीं
ये नाम भी मेरा नहीं
मुसाफिर बने चल रहे
इस दौड़ में आगे भी निकल आये
पर ये जीत क्यों नहीं लगती मेरी
मुझे तो सपनों में हार जाना भी पसंद था
फिर क्यों धकेला इस अनजाने बेगानों की दलदल में
एक जैसों की दुनिया में
जहाँ भीड़ की भीड़ से ही होर है
और ना अपनी अलग कोई पहचान है
हमें तो कहीं और था जाना
कुछ और था करना और अलग था दिखना
फिर क्यों आये इन भेड़ियों की भगदड़ में
ऐसे शोर में, ऐसे जहाँ में