हम क्यूँ लिखते हैं ?
हम क्यूँ लिखते हैं ?
हम क्यूँ सबसे अलग ?
नहीं जी सकते हम सामान्य-सी जिंदगी ?
समाज का दुःख दर्द देखते ही,
हम क्यूँ तिलमिलाते हैं ! आखिर क्यूँ...
हमारी संवेदना सबसे अलग ?
हमारी ही अंतरात्मा क्यूँ जाग उठती है ?
क्यूँ अंदर से आवाज़ आती है उठो,
जागो, लिखो...हमे ही क्यूँ कहती है ?
वह कौन-सी शक्ति है ?
जो हमें लिखने को मजबूर कर देती है !
जाने क्यूँ एक अजब-सी बेचैनी,
छा जाती है और लिखने के बाद ख़ुशी !
पता नहीं यह हमारा सौभाग्य है या दुर्भाग्य,
पर हम लिखते रहते हैं !
आलोचना भी होती हैं, सराहना भी,
अच्छा लगता है एक सुकून मिलता है !
कभी सपने बुने जाते हैं,
टूटते और बिखर जाते हैं, वही न्यूनता भी,
जिंदगी के वो हर अनुभव लिखने पर,
मजबूर करते हैं ! हम क्यूँ लिखते हैं ?
भले ही वह अपने हो या दूसरे के सब,
दुःख दर्द अपने समझ के उमड़ आते हैं !
तो कभी कल्पनाविलास से दूसरी,
दुनिया सामने लाकर लिखते रहते हैं !
जिंदगी के हर एक मोड़ पर इंसान,
कैसे बदलता है, लाचार बनता है...
तब हिम्मत और लगन से अपना अस्तित्व,
कैसे कायम करना वही सिखाते हैं !
हम दिल से लिखते हैं, और श्रोतागण,
पाठकगण हमारी पीठ थपथपाते हैं...
इसलिये हम बेचैनी सहते हुए अपनी,
जिम्मेदारी बखूबी निभाते हैं, लिखते हैं !