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Habib Manzer

Others Romance

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Habib Manzer

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वो पागल थी

वो पागल थी

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वो पागल थी,

दिवानी थी,

कभी मैंने नहीं जाना,

क्यामत की,

निशानी थी,

कभी मैंने नहीं जाना।


बुलाती थी,

हँसाती थी,

कभी दिल भी,

लगाती थी,

वो चाहत थी,

मोहब्बत थी,

कभी मैंने नहीं जाना।


कभी आहट,

कभी धड़कन,

सुनाती थी,

बढ़ाती थी,

मगर कैसी वो,

कातिल थी,

कभी मैंने नहीं जाना।


पलंग पर साथ मेरे थी,

मेरे बिस्तर की सिलवट थी,

फसाना दिल्लगी थी वो,

कभी मैंने नहीं जाना।


हसीन लम्हात थी मेरी,

सफर मे साथ थी मेरी,

वही मंज़िल बनी मेरी,

कभी मैंने नहीं जाना।


उदासी की सबब मेरी,

खूशी की हर वजह मेरी,

हुई कब रूह मे शामिल,

कभी मैंने नहीं नही जाना।


हकीकत ख्वाब दिलकी थी,

तमन्ना दिल मेरी वो थी,

बनी दिलकी वो कब धडकन,

कभी मैंने नहीं जाना।


गली रौशन भी थी उससे,

समा महफिल मे थी उससे,

वजह ग़म दिल बनी कैसे,

कभी मैंने नहीं जाना।


चला जाता कभी तन्हा,

भूला देता मै हर चाहत,

यकीन जीने की थी मेरी,

कभी मैंने नहीं जाना।


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