रे विचित्र परिवेश !
रे विचित्र परिवेश !
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रे विचित्र परिवेश!
तज मानवता, धर दानवता
छोड़ स्वयं का वेश!
संस्कार सब हुए पुरातन
आज्ञाकारक मृदु संभाषण
गायब सब परिवार निमन्त्रण
कहीं नहीं अब वे आमन्त्रण।
देखो बढा स्व-देश!
अठखेली के खेल पुराने
पोसम्पा, न ईचक दाने
अक्कड़ बक्कड़ लुकाछिपी में
विष-अमृत के बोल सुहाने…
प्यारा था वह वेश!
पगडंडी के डंडे तोड़े
कुछ बे-लाज शरम के छोड़े
पोर पुखरिया में पत्थर से
कितने उछले ऊंचे रोड़े
कहीं न छल का लेश!
आज समर्पण कितना बाकी
मन से निष्ठुर तन से बाकी
छल दंभी औ अहंकार ने
जाने कितनी सीमा नाकी*
सिमटा सब परिवेश!
* लांघना