'किमियागर’
'किमियागर’
पंख तो हैं पर उड़ती नहीं
क़ैद में है पर रूकती नहीं
जाने किस दुनिया की है वो
जाने इस जहाँ में क्यूँ आयी है।
कोई गहरा सा राज़,
एक रेशमी सी उलझन है
कोशिश तो मैंने भी की पर
मुझको न समझ आती है।
किमियागिरी आती है उसे
देखा है मैंने
वो पत्थर को सोना बनाती है।
कभी शोले सी भड़क उठती है
कभी बर्फ़ सी पिघल जाती है।
रिवाजों के नाम पर
मुस्कुरा देती है,
जाने कौन से दस्तूर
इतनी संजीदगी से निभाती है।
मिट्टी से सनी
चाँद के पार चली जाती है
मैं दायरे बनाता हूँ
वो हद से गुज़र जाती है।
किमियागिरी आती है उसे
देखा है मैंने
वो पत्थर को सोना बनाती है।