अधूरा ख़त
अधूरा ख़त
एक ख़त आज हाथ लगा,
जिसमें था उसका नामलिखा।
ये सोच मैं हैरान हुआ,
क्यों ये उस तक न पहुँचा।
धीमे धीमे ख़त को खोला
ख़त नाराज होकर बोला।
"ख़त दूजे का पढ़ते हो,
गलत काम क्यों करते हो"
ख़त की बात सुनी जैस ही
याद मुझे कुछ तब आया
मैं हौले से मुस्काया
ख़त को फिर समझाया
"मैंने जिसके लिए लिखा,
वो था तब नाराज ज़रा।"
आधा लिख कर छोड़ा था
यूँ ही तुमको मोड़ा था।
"कुछ दिल की बातें है इसमें,
कुछ तारीफें उसकी है।"
मुझसे प्यार बहुत करती थी
लेकिन लड़ती रहती थी।
तुम्हें भेजना चाहा था
पर दिल मेरा घबराया था।
तुम्हें अगर वो पढ़ लेता
तो शायद गुस्सा होता
या मन ही मन में रोता
अब तो इन बातों का कोई
मतलब न रह जाता हैं
जाने कहाँ चला गया वो
बस यादों में सताता है।