दोस्ती या दीवानगी का खत
दोस्ती या दीवानगी का खत
बंद गलियों मे रुक - रुक के
चल रही थी राहें मेरी।
कोरे पन्नों पे झूम - झूम के
चल रही थी कलमे मेरी।
हर पहले पन्ने पर
अपने इंतज़ार की घड़ी को दिखाता।
हर दूसरे पन्ने पर
तुझसे बातें करने का
उपाय खुद को बताता।
ना जाने तुम मे क्या बात है ?
जो कि चाँदनी रात मे भी न है !
तेरी इंतज़ार की घड़ियों ने
मुझे कवि बना डाला है !
लोगों के काँटे
जो मेरे प्रति बरसते थे
उन्हें तेरी घड़ियों ने
फूल बना डाला है !
गुज़रे हुए कदम
मुझे दीवाना बताते होगे।
उन कदमों को देख
लोग मुझे दीवाना समझते होगें।
लेकिन तुम मेरे दिल
और दिमाग की माया नही।
तुम तो मेरी दोस्ती का साया हो।
हर दूसरे पन्ने पर
तुझसे मिलने का उपाय
खुद को बताता।
लेकिन उन उपायों के लिए
कोई कदम उठा न पाता।
करना है मुझे तुम से
अपने दोस्ती का इज़हार।
ना जाने कैसे अटक गई
एक डर की दीवार।
आज हूँ मैं जो कुछ भी,
वो तुम्हारी अमानत है।
ना बोल पाया तुझ से कुछ भी,
तो वह रब की शरारत है।
शायद वह मुझसे
और लिखवाना चाहता।
इसलिए तेरी दोस्ती को पाने का
रास्ता न दिखाता...!