मेरी कल्पनाऐं
मेरी कल्पनाऐं
मेरी कल्पनाएँ आसमान छू जाएँगी,
उड़कर वापस ज़मीं पर न आएँगी।
चूंकि चंचल हैं बहुत,
मेरा कहा नहीं मानेंगी।
इसलिए मैंने इन्हें पंख न दिये,
खुले आकाश में उड़ने न दिया।
उन हवाऒं से बातें न करने दिया,
आकाश में ऊँची उड़ाने भरती जो।
कल्पनाऐं कब किसी की गुलाम रहती हैं,
इसलिए ये मुझसे रूठी रहती हैं।
दिल की खिड़कियों से ये गुहार लगाती हैं,
कोशिश हर पल मुझे मनाने की करती हैं।
कहती हैं-
पंख न दिये तो हम उड़ न पाएँगे,
इस बंद दिल में घुटकर मर जाएँगे,
और तुम्हें यहाँ अकेला छोड़ जाएँगे।
कोशिश करोगे बहुत,
पर हम वापस नहीं आएँगे,
इतने दूर तुमसे जो चले जाएँगे।
उड़ने दो एक बार, तुम्हारे लिए तोहफा लाएँगे।
ज़िन्दगी भर न भूलो, ऐसा अनोखा लाएँगे।